लोक संस्कृति की पहचान "संझा" अब लुप्त होने के कगार पर, अब गांवो मे भी नही सुनाई देती शाम को संझा गीतो की गुंज

निर्मल मुंदड़ा September 8, 2020, 7:15 pm Technology

रतनगढ़। हमारे भारत मे प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की लोक संस्कृति एवं तीज त्यौहारो को मानने वाले लोग रहे है यहां पर तीज त्यौहारों पर मेहंदी, रंगोली, महावर, मांडने आदि बनाए जाते है।

पन्द्रह दिनो तक रहती थी संझा की गुंज:-

भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक चलने वाले पंद्रह दिवसीय श्राद्ध पक्ष मे कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला मालवा मैवाड का प्रमुख लोक पर्व "संझा" कुंवारी कन्याओं का एक ऐसा महापर्व है जो अब पूरी तरह से धीरे धीरे विलुप्त होने के कगार पर है। कहा जाता है कि कुंवारी कन्याए अच्छे पति की कामना के लिये यह पर्व मनाती थी शहरो ही नहीं गांवो में भी इक्का दुक्का घरो मे ही अब संझा लोक पर्व की गूंज सुनाई देती है मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रो में कुंवारी कन्याओं के द्वारा बड़े उत्साह एवं उमंग के साथ यह लोकपर्व मनाया जाता रहा है श्राद्ध पक्ष के पहले ही दिन से सोलह दिन तक मनाया जाने वाले संझा लोकपर्व के अवसर पर कन्याओ की आस्था, विश्वास और आकांक्षाए दिवारो पर बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के माण्डनो, भित्ति चित्रों, लोक चित्रकारी के माध्यम से आदिशक्ति के विभिन्न स्वरुपो माता पार्वती, गोरा, दुर्गा आदि की पूजा अराधना के निमित्त जानी पहचानी जाती थी। गांवो मे प्रतिदिन शाम होते ही मोहल्ले में कन्याएं अपने घरो की दिवारो पर लाल पीली मिट्टी से लीप कर गाय, भैंस का ताजा गोबर ढूंढ कर प्रतिदिन संझा की विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियां दिवारो पर बनाकर उसे कनैर, गुलाब, चांदनी, चंपा, चमैली, मोगरा आदि के फूलो से सजाती थी और संझा गीत गाती थी।

और समुह मे एक दूसरे के घर घर जाकर संझा की आरती कर प्रतिदिन अलग अलग तरह का प्रसाद बांटती थी। और कुछ इस तरह के गीत गुनगुनाती थी "संझा तू थारे घर जा,कि थारी बई मारेगा,कि कुटेगा कि डेरी में डचोकेगा"..ले संझा आरती, आरती मे जीरो, जीरा मे राई..राज करे भोजाई...आदि और भी कई गीतो से अराधना की जाती थी पर विडम्बना देखिये कि आज वास्तव में संझा हमेशा के लिए अपने घर को चली गई है।

प्रतिदिन दिवारो पर बनाए जाते थे गोबर के भित्ति चित्र:-

नन्ही बालिकाओ द्वारा मनाए जाने वाले लोक संस्कृति का यह उत्सव तो इक्कठा होकर गोबर लाओ, घर के बाहर दीवार लिपकर गोबर से प्रतिदिन विभिन्न भित्ति चित्र, कोट- कंगूरे, पालकी, पलना, सीढ़ी, चांद-सूरज, फूल- पत्ते, घोड़ा-बारात, गणपति और भी न जाने कितने तरह के चित्र रोज हर घर की बाहरी दीवार पर बनाए जाते थे।और आखीरी दिन गोबर के बने विभिन्न भित्ति चित्रों को चमकीले, रंगीन कागजों से आकर्षक रूप से सजाया जाता था सभी बालिकाओ में आपस में अपनी संझा को सुंदर और आकर्षक बनाने की होड लगी रहती थी आखिर मे संझा को अमावस्या के अगले दिन पूजा अर्चना कर नदी में विसर्जित किया जाता था।

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