भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। यही वो दौर था जब इन संत कवियों ने मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की और जन जन में भक्ति का संचार किया। इन्हीं में से एक थे संत रविदास। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुरूभाई माने जाते हैं।
संत रविदास का जन्म :-
वैसे तो संत रविदास के जन्म की प्रामाणिक तिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं लेकिन अधिकतर विद्वान सन् 1398 में माघ शुक्ल पूर्णिमा को उनकी जन्म तिथि मानते हैं। कुछ विद्वान इस तिथि को सन् 1388 की तिथि बताते हैं। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर साल माघ पूर्णिमा को संत रविदास की जयंती मनाई जाती है। माघ मास की पूर्णिमा को जब रविदास जी ने जन्म लिया वह रविवार का दिन था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया।
रविदास चर्मकार कुल में पैदा हुए थे इस कारण आजीविका के लिए भी इन्होंने अपने पैतृक कार्य में ही मन लगाया। ये जूते इतनी इतनी लगन और मेहनत से बनाते मानो स्वयं ईश्वर के लिए बना रहे हों। उस दौर के संतों की खास बात यही थी कि वे घर बार और सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े बिना ही सहज भक्ति की और अग्रसर हुए और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए ही भक्ति का मार्ग अपनाया।
मन चंगा तो कठौती में गंगा :-
संत रविदास की अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता इस उदाहरण से समझी जा सकती है एक बार की बात है कि रविदास अपने काम में लीन थे कि उनसे किसी ने गंगा स्नान के लिए साथ चलने का आग्रह किया। संत जी ने कहा कि मुझे किसी को जूते बनाकर देने हैं यदि आपके साथ चला तो समय पर काम पूरा नहीं होगा और मेरा वचन झूठा पड़ जाएगा। और फिर मन सच्चा हो तो कठौती में भी गंगा होती है आप ही जाएं मुझे फुर्सत नहीं। यहीं से यह कहावत जन्मी मन चंगा तो कठौती में गंगा।
सामाजिक भेदभाव का विरोध :-
संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जागरूकता लाने का प्रयास भी किया। सही मायनों में देखा जाए तो मानवतावादी मूल्यों की नींव संत रविदास ने रखी। वे समाज में फैली जातिगत ऊंच-नीच के धुर विरोधी थे और कहते थे कि सभी एक ईश्वर की संतान हैं जन्म से कोई भी जात लेकर पैदा नहीं होता। इतना ही नहीं वे एक ऐसे समाज की कल्पना भी करते हैं जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो।