नीमच। विकास नगर के जैन श्वेताम्बर श्री महावीर स्वामी जिनालय की शीतल छाया में आयोजित चातुर्मास के दौरान आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी के सुशिष्य मुनि श्री संयमरत्न विजय जी,मुनि श्री भुवनरत्न विजय जी ने कल्याण मंदिर स्तोत्र का भावार्थ समझाते हुए कहा कि हे स्वामिन्! हे दीनानाथ!दुखियों पर दया करने वाले,हे शरण्य! हे करुणाधारी! हे जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ! हे परमात्मन्! आप अपने भक्त पर दया का संचार करके दुःख उत्पत्ति के अंकुर नष्ट करने वाली सावधानता प्रदान कीजिये।जो परमात्मा की कृपा प्राप्त कर लेता है,उसके समस्त दुःख जड़मूल से समाप्त हो जाते हैं। नवपद ओली आराधना के षष्टम दिवस दर्शन पद की महत्ता बताते हुए कहा कि बिना सम्यग्दर्शन के आराधना अधूरी रहती है।जैसे अनाज के लिए पृथ्वी और तारों के लिए आकाश आधार है,वैसे ही सम्यक्त्व याने सच्ची श्रद्धा समस्त गुणों का आधार है।जहाँ सुदृढ़ व सच्ची श्रद्धा होती है,वहाँ समस्त सद्गुण अपने आप आ जाते हैं।सम्यक्त्व के बिना व्रत नहीं रहता।व्रत के न रहने पर धर्म नहीं रहता।धर्म के न रहने पर सुख नहीं रहता और सुख के न रहने पर जीवन निष्फल हो जाता है।शून्य के पहले एक हो तो वही शून्य मूल्यवान हो जाता है।रोशनी हो,तो आँखें सार्थक होती है।वर्षा होने से खेती व्यर्थ नहीं होती।सूर्य के तेज के अभाव में नयन व्यर्थ है और अच्छी वर्षा के बिना खेती व्यर्थ है,इसी तरह सही दृष्टिकोण के बिना बड़ी से बड़ी तपस्या भी व्यर्थ है।जिसका दृष्टिकोण सही होता है,वह अवगुण में भी गुण खोज लेता है और गलत दृष्टिकोण वाला अच्छाई में भी बुराई खोज लेता है।सही दृष्टिकोण वाला जीव गुणीजनों की प्रशंसा करके गुणवान बनने का ही प्रयास करता है।दुष्ट मनुष्य की निंदा करने की अपेक्षा सज्जन की प्रशंसा करना बेहतर है।दूसरों में दोष देखना दुष्टता है तो दूसरों के गुण देखना सज्जनता है।यदि दोष ही देखना है तो स्वयं के दोष देखना चाहिए,इससे दोष त्याग की प्रेरणा मिलती है।दूसरों में दोष ढूँढने वाला स्वयं दोष संपन्न हो जाता है और गुण ढूँढने वाला गुण संपन्न हो जाता है।दुष्ट पुरुष दूसरों के सरसों के दाने के बराबर छोटे दोष को भी देख लेता है,पर स्वयं के फल के बराबर बड़े दोषों को नहीं देखता।इससे विपरीत सज्जन सदा दूसरों के गुणों की ओर ध्यान देता है।जो गुणग्राही होता है,उसका अवश्य कल्याण होता है।परमात्मा की वाणी में बिना संदेह की जो निर्मल श्रद्धा होती है,वही सम्यक्त्व कहलाता है,यह सम्यक्त्व चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदायी है।इसे प्राप्त कर जीव निर्विघ्न रूप से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। धृति,क्षमा,सरलता,कोमलता आदि दस प्रकार के पवित्र धर्म धारण करने पर भी यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण गलत रह जाए,तो उसकी मुक्ति होना दुर्लभ है।समकित,श्रद्धा नहीं होने के कारण ही जीव इस संसार की चार गतियों में भटकता रहता है।यथार्थ के प्रति श्रद्धा सम्यक्त्व है और अयथार्थ पर की गई श्रद्धा मिथ्यात्व है।शंका करना मिथ्यात्व नहीं है,किंतु शंका रखना मिथ्यात्व है।