नीमच। शुद्ध आहार से मन पवित्र होता है। पवित्र मन से विचार आते हैं तभी आत्म कल्याण का मार्ग मिलता है। मनुष्य दो समय का भोजन₹200 में कर सकता है लेकिन वह अपनी संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग नहीं करता हे चिंतन का विषय है। भौतिक संसाधनों एवं धन संपत्ति संग्रह की प्रवृत्ति प्रवृत्ति के त्याग विना आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता है। यह बात मुनि वैराग्य सागर जी महाराज ने कही। वे श्री सकल दिगंबर जैन समाज नीमच शांति वर्धन पावन वर्षा योग समिति नीमच के संयुक्त तत्वाधान में श्री शांति सागर मंडपम दिगंबर जैन मंदिर नीमच में अष्टानिका महापर्व गणधर वलय विधान समापन कार्यक्रम में आयोजित धर्म सभा में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि आत्मा का सांसारिक भौतिक वस्तुओं से कोई संबंध नहीं होता है राग द्वेष का काम क्रोध माया के के कारण ही। पाप कर्मों का बंधन बढ़ता है। आहार भौतिक शरीर को पुष्ट करता है आत्मा को नहीं। आत्मा को पवित्र करने के लिए तपस्या भक्ति आराधना पूजा को माध्यम बनाना चाहिए। सदगुरु के बिना आत्मा का कल्याण नहीं होता है। मनुष्य स्वादिष्ट भ भोजन और भूख के पीछे संसार में भटकता फिरता है। देवता को सिर्फ एक बार भूख लगती है वह भी अमृत की एक बूंद से मिट जाती है। यदि आत्मा का कल्याण करना है तो भौतिक शरीर की की भूख को त्याग त्याग करने का अभ्यास करना होगा तपस्या को जीवन में पस्या को जीवन में आत्मसात करना होगा दिगंबर जैन समाज के अध्यक्ष विजय जैन विनायका जैन ब्रोकर्स, मीडिया प्रभारी अमन जैन विनायका ने बताया कि आचार्य वंदना आरती के साथ हुई।
सुबह 6:45 यह 6:45 बजे मंगलाष्टक विधान से प्रारंभ हुआ। विधानाचार्य बाल ब्रह्मचारी भैया जी भावेश जैन ने गणधर वलय विधान करवाया। और संगीतकार प्रथम जैन दमोह ने विभिन्न भजन प्रस्तुत किये। गणधर गंणधर वलय विधान में समाज जनों ने उत्साह के साथ भाग लिया इस अवसर पर नौ दिवसीय विश्व महा शांति के लिए महायज्ञ का विश्राम पूर्णाहुति के साथ हुआ। मुनि सुप्रभ सागर जी मसा ने कहा कि धर्म गुरुओं द्वारा प्रदान की गई जिनवाणी हमारी आत्मा का कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है जिनवाणी श्रवण करने करने से तनाव दूर होता है कट व व रोग मिटते हैं। और मोक्ष मार्ग मिलता है। जिनवाणी का एक शब्द भी आत्मा का कल्याण कर सकता है लेकिन मनुष्य को एकाग्रता पूर्वक जिनवाणी का श्रवण करना होगा। व्यक्ति धर्म ज्ञान व स्वहित की बात नहीं सुनता है। समय रहते धर्म ज्ञान को स्वीकार नहीं करता है लेकिन जब कर्म का फल मिलता है तो यह दुःखी होते हुए स्वीकार करता है की बात सही थी लेकिन जब समय निकल जाता है उसके बाद धर्म कर्म का पुण्य नहीं कर पाता है यही सच है। संत और तीर्थकर किसी का भी अहित नहीं करते हैं फिर भी हम उनकी वाणी पर विश्वास नहीं करते हैं। मानव धन के लालच में स्वार्थी रहता है उसके स्वार्थ के बिना किसी भी बात को नहीं सुनता है यह भी कड़वा सच होता है। धनवान कैसे योग आ जाते बनना है इस पर प्रवचन हो तो हजारों लोग उ हैं लेकिन यदि आत्म कल्याण कैसे करना है पर प्रवचन हो तो संख्या गिनती की ही रहती है चिंतन का विषय है। लोग मनोरंजन के प्रति सजग रहते हैं भक्ति वंदना तपस्या के प्रति उदासीन रहते हैं चिंतन आत्मा का कल्याण करन का सत का विषय है। भौतिक सुख संपत्ति वैभव का त्याग किये बिना जीवन में आत्म कल्याण का मार्ग नहीं मिलता है।