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प्राचीन लोक संस्कृति की पहचान संझा अब पूरी तरह से लुप्त होने के कगार पर, अब गांवो मे भी कही कही ही सुनाई देती है

निर्मल मुंदड़ा September 28, 2024, 3:53 pm Technology

रतनगढ ।हमारे भारत मे प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की लोक संस्कृति एवं तीज त्यौहारो को मानने वाले लोग रहे है। यहां पर तीज त्यौहारों पर मेहंदी, रंगोली, महावर, मांडने आदि बनाए जाते है। 15 दिनो तक रहती थी संझा की गुंज*-भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक चलने वाले 15 दिवसीय श्राद्ध पक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला मालवा मैवाड का प्रमुख लोक पर्व "संझा" कुंवारी कन्याओं का एक ऐसा महापर्व है।

जो अब पूरी तरह से धीरे धीरे विलुप्त होने की कगार पर आ गया है। कहा जाता है। कि कुंवारी कन्याए अच्छे पति की कामना के लिये यह पर्व मनाती थी। शहरो ही नहीं गांवो में भी इक्का दुक्का घरो मे ही अब प्राचीन संझा लोक पर्व की गूंज सुनाई देती है। मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रो में कुंवारी कन्याओं के द्वारा बड़े उत्साह एवं उमंग के साथ यह लोकपर्व मनाया जाता रहा है। श्राद्ध पक्ष के पहले ही दिन से 16 दिन तक मनाया जाने वाले संझा लोकपर्व के अवसर पर कन्याओ की आस्था, विश्वास और आकांक्षाए दिवारो पर बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के माण्डनो, भित्ति चित्रों, गाय, भेंस के गोबर, फूल पत्तियो, रंगीन कागजो की लोक चित्रकारी के माध्यम से आदि शक्ति के विभिन्न स्वरुपो माता पार्वती, गोरा, दुर्गा आदि की पूजा अराधना के निमित्त जानी पहचानी जाती थी। गांवो मे प्रतिदिन शाम होते ही मोहल्ले में कन्याएं अपने घरो की दिवारो पर लाल पीली मिट्टी से लीप पोत कर गाय, भैंस का ताजा गोबर ढूंढ कर प्रतिदिन संझा की विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियां दिवारो पर बनाकर उसे कनैर, गुलाब, चांदनी, चंपा, चमैली, मोगरा आदि के फूलो एवं पत्तियों से सजाती थी। और संझा गीत गाती थी। और समुह मे एक दूसरे के घर घर जाकर संझा की आरती कर प्रतिदिन अलग अलग तरह का प्रसाद बांटती थी। और कुछ इस तरह के गीत गुनगुनाती थी "संझा तू थारे घर जा, कि थारी बई मारेगा, कि कुटेगा कि डेरी में डचोकेगा".. ले संझा आरती, आरती मे जीरो, जीरा मे राई.. राज करे भोजाई... आदि और भी कई लोकगीतो से अराधना की जाती थी। पर विडम्बना देखिये कि आज वास्तव में हमारी प्राचीन संस्कृति का एक प्रमुख अंग संझा हमेशा हमेशा के लिए हमारे गांव हमारे घरो से हमेशा के लिए अपने घर के लिए चली गई है।

प्रतिदिन दिवारों पर बनाए जाते थे। गोबर व रंगीन कागज के भित्ति चित्र-नन्ही बालिकाओं द्वारा मनाए जाने वाले प्राचीन लोक संस्कृति का यह उत्सव इकट्ठा होकर गोबर लाओ, घर के बाहर दीवार लिपकर गोबर व रंगीन कागजो से प्रतिदिन विभिन्न भित्ति चित्र, कोट-कंगूरे, पालकी, पलना, सीढ़ी, चांद- सूरज, फूल-पत्ते, घोड़ा- बारात, गणपति और भी न जाने कितने तरह के चित्र रोज हर घर की बाहरी दीवार पर बनाए जाते थे। और आखरी दिन गोबर के बने विभिन्न भित्ति चित्रों को चमकीले, रंगीन कागजों से आकर्षक रूप से सजाया जाता था। सभी बालिकाओ में आपस में अपनी संझा को सुंदर और आकर्षक बनाने की होड़ लगी रहती थी। एवं आखिर मे संझा को अमावस्या के अगले दिन पूजा अर्चना कर नदी में विसर्जित किया जाता था।

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