प्रायः देखा गया है कि पुलिस धोखाधड़ी के छोटे-मोटे मामलों पर संज्ञान नहीं लेती है कई बार ऊंची पहुंच वाले लोग धोखाधड़ी करते हैं तो उनके खिलाफ कार्यवाही करना सामान्य व्यक्ति के लिए, पुलिस के लिए बहुत कठिन हो जाता है। कई बार धोखाधड़ी इस किस्म की होती है की पुलिस यह कहकर उसे टाल देती है कि यह तो सिविल प्रकृति का मामला है इसमें पुलिस कुछ नहीं कर सकती ।
जैसे कि हमने देखा है कि अक्सर किसी कॉलोनी में प्लाट लेते समय कॉलोनाइजर से कोई एग्रीमेंट किया जाता है और फिर उस एग्रीमेंट के अनुसार कॉलोनाइजर कार्य न करते हुए धोखा दे देता है ऐसी स्थिति में पुलिस कहती है कि यह तो एग्रीमेंट के उल्लंघन का मामला है और यह दीवानी न्यायालय से संबंधित होने के कारण इस पर पुलिस कार्यवाही या फौजदारी कार्यवाही नहीं की जा सकती । वैसे तो जहां भी धोखाधड़ी होती है वहां पर धारा 419 और 420 भारतीय दंड विधान के अंतर्गत अपराध होता है किंतु फिर भी पुलिस कोई एफ आई आर दर्ज नहीं करती और हमें मजबूरी में दीवानी न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है। दीवानी वाद थोड़े जटिल किस्म के होते हैं, इनमें समय भी ज्यादा लगता है,कानूनी खर्च भी ज्यादा लगता है, वकील फीस भी ज्यादा होती है।
इन का प्रारूप, इनका दस्तावेज लेखन आदि विशिष्ट किस्म का होने से इस प्रकार के दावे को किसी कुशल दीवानी मामलों के विशेषज्ञ वकील की सहायता से ही न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं भी इस प्रकार का दावा बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत करने का अधिकार तो रखता है किंतु बिना उच्चतम विधिक ज्ञान के इस प्रकार का दावा लगाना संभव नहीं होता है इसलिए इसे किसी वकील महोदय के द्वारा ही प्रस्तुत करवाया जाना चाहिए। जब किसी अनुबंध का उल्लंघन होता है तो हमें बहुत सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है। यह विधि का सूस्थापित सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति अपनी किसी भूल का विपरीत लाभ नहीं ले सकता अर्थात पहले तो कोई व्यक्ति स्वयं ही गलती करें और बाद में उस गलती का आक्षेप किसी दूसरे पर डालें ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए अनुबंध के मामले में अनुबंध के निर्माण के समय से ही व्यक्ति को सजग रहना चाहिए। किसी भी अनुबंध का निर्माण एक कुशल विधि विशेषज्ञ की निगरानी में किया जाना चाहिए। अक्सर वही लोग अनुबंध के आधार पर धोखे के शिकार होते हैं जो लोग अनुबंध की प्रारंभिक अवस्था में किसी विधि विशेषज्ञ की सहायता लेने की उपेक्षा करते हैं । यहां दृढ़ता पूर्वक यह कहा जा रहा है कि प्रत्येक अनुबंध किसी विधि विशेषज्ञ की निगरानी में ही किया जाए ।
प्रायः जो भी गलतियां होती है वह अनुबंध के प्रारंभ से ही निर्मित होना शुरू हो जाती है। अनजाने में अनुबंध में ऐसी कई कानूनी कमियां विद्यमान हो जाती हैं या जानबूझकर कर दी जाती हैं जिससे कि भविष्य में अनुबंध का उल्लंघन होने पर पीड़ित को कोई कानूनी सहायता नहीं प्राप्त हो सके। अनुबंध में बनाते समय सामान्य तौर पर अनुबंध का दिनांक, अनुबंध में वर्णित संपत्ति का स्पष्ट विवरण, अनुबंध की समय सीमा, अनुबंध में लगने वाले स्टांप का मूल्य, अनुबंध में वर्णित संपत्ति का मूल्य, अनुबंध करने का स्थान, अनुबंध की शर्तें और गवाहों के हस्ताक्षर आदि कई प्रकार की गूढ़ बातें होती हैं जिनमें की गई छोटी सी कमी किसी अनुबंध को दूषित कर देती है ।
एक अच्छा अनुबंध वह कहलाता है जो भारतीय संविदा अधिनियम के प्रावधानों के उचित पालन के साथ निर्मित होता है । अनुबंध के साथ दी जाने वाली राशि चेक, ड्राफ्ट या आरटीजीएस द्वारा दी जाना चाहिए नगद राशि कभी भी नहीं दी जाना चाहिए । यदि परिस्थिति इस प्रकार की है कि कुछ राशि नगद दिया जाना जरूरी है तो यह प्रयास किया जाए की दी जाने वाली राशि की आधी राशि नगद में तथा आधी राशि किसी बैंक के माध्यम से अदा की जाए। यदि कोई अनुबंध के समय नगद राशि की मांग पर अड़ जाता है तो 99 प्रतिशत यह संभावना है कि ऐसा व्यक्ति भविष्य में धोखा दे सकता है। अब यदि हमने पूर्ण सावधानी से अनुबंध का निर्माण किया और फिर भी अनुबंध का जानबूझकर उल्लंघन कर दिया गया तो ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम हम सामने वाले पक्ष को समय सीमा में रहते हुए अनुबंध के समय पालन का कानूनी नोटिस देते हैं।
इस कानूनी नोटिस के दिए जाने के बाद हमारे कानूनी नोटिस के बारे में सामने वाले पक्ष की क्या प्रतिक्रिया है उस पर अगली कार्यवाही निर्भर करती है। कई बार ऐसा देखा गया कि उक्त कानूनी वकील नोटिस के पश्चात ही मामले का निराकरण हो जाता है। ऐसे कानूनी वकील नोटिस का खर्च मामले की गंभीरता के अनुसार वकील महोदय निर्धारित करते हैं । किंतु यदि सामने वाला नोटिस का उत्तर न दे, नोटिस को लेने से बचें या नोटिस का ऐसा उत्तर दें जो संतोषजनक नहीं हो तो ऐसे नोटिस के बाद हम दीवानी दावा न्यायालय में प्रस्तुत कर सकते हैं।मामले की विषय वस्तु के आधार पर न्यायालय में एक प्रकार का दावा संविदा अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अंतर्गत दावा प्रस्तुत किया जाता है और दूसरे प्रकार से एक सामान्य दीवानी दावा भी प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे दावों को लगाने के लिए न्याय शुल्क अदा करना होता है जो दावे में चाही गई राशि के मान से कम या ज्यादा होती है जोकि मध्यप्रदेश में ₹200 से डेढ़ लाख रुपए के मध्य होती है।
इसके अलावा अधिवक्ता महोदय की फीस तथा दस्तावेज के निर्माण और अन्य कोर्ट कार्यवाही में छोटा मोटा खर्च होता है। दीवानीदावा प्रस्तुत करने के पश्चात सर्वप्रथम प्रतिपक्ष को नोटिस होते हैं, वह अपना जवाब प्रस्तुत करता है ,फिर वाद विषय निर्मित होते हैं, फिर गवाही की कार्यवाही होती है और अंत में न्यायालय द्वारा निर्णय लिया जाता है। न्यायालय द्वारा दिए गए इस निर्णय में वादी के सफल होने पर वादी को प्रायः न्यायालय वांछित राशि, उस पर ब्याज, अतिरिक्त प्रति कर, न्याय शुल्क भी सामने वाले प्रतिपक्ष से दिलवाए जाने के आदेश होते हैं। दीवानी दावों के निराकरण में में सामान्यतः 1 वर्ष से अधिक का समय लगता है।
यदि वादी के सफल होने के पर्याप्त साक्ष्य होने के पश्चात भी दुर्भाग्यवश न्यायालय का निर्णय वादी के विरुद्ध आ जाता है तो वादी ऐसे दीवानी वाद की अपील कर सकता है तथा इस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट तक जारी रख सकता है। इस प्रकार आज के अंक में हमने दीवानी दावे के आधार पर धोखाधड़ी से हुई हानि को रिकवर करने का तरीका संक्षेप में समझा। आशा है उक्त जानकारी पाठकों को उपयोगी सिद्ध होगी। वैसे तो धोखाधड़ी पर विभिन्न प्रकार के मामले बनते हैं जिन पर सैकड़ों अंक लिखे जा सकते हैं जिन्हें पाठकों की रुचि अनुसार भविष्य में प्रकाशित किया जावेगा। पाठक वर्ग किसी विशेष विषय को लेकर जानकारी चाहते हैं तो अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएं हम यथासंभव शामिल करने का प्रयास करेंगे। । सर्वे भवंतु सुखिनः।