आचरण का रस बनकर जीवन के कण-कण में पहुंचे, तभी जीवन सार्थक है --संयमरत्न विजय म सा

Neemuch Headlines October 20, 2020, 7:34 pm Technology

नीमच। विकास नगर स्थित जैन श्वेताम्बर श्री महावीर स्वामी जिनालय की शीतल छाया में आयोजित चातुर्मास के दौरान आचार्य जयन्तसेनसूरि के सुशिष्य मुनि संयमरत्न विजय ,मुनि म सा ,भुवनरत्न विजय ने कल्याण मंदिर स्तोत्र का भावार्थ समझाते हुए कहा कि

अज्ञानियों को ज्ञान प्रदान करने वाले हे परमात्मा! आपकी साधना के समय जब कमठ नामक असुर क्रोधावेश में आकर आप पर धूल डालता है,तो आपको विचलित करना तो दूर बल्कि आपकी छाया को भी वह धूल से नहीं ढँक सका।

इसके विपरीत स्वयं कमठ ही दुःखी होकर भाग गया।

दूसरों पर कीचड़ उछालने से पहले,कीचड़ उछालने वाले के ही हाथ खराब होते हैं।

महान पुण्योदय से,धर्म के फल से प्राणी को पाँचों इंद्रियाँ प्राप्त होती है।

अपने कान से दूसरों की निंदा सुनना कान का दुरुपयोग है,

जबकि सद्गुण,सत्य श्रवण करना कान का सदुपयोग है।

अधिकतर लोग दूसरों की निंदा सुनने में अधिक रस लेते हैं।

निंदा करना व सुनना दोनों ही बुरा है।

जिसकी निंदा की जाती है,यदि उसे पता चल जाए तो वह उसका दुश्मन बन जाता है|

अगर हम दूसरों की निंदा सुनकर प्रसन्न होते हैं,

तो दूसरे भी हमारी निंदा सुनकर अवश्य प्रसन्न होंगे।

फिल्मी संगीत सुनना कान का दुरुपयोग है

,इससे वासना जागृत होती है।

'हिरण' मधुर गीतों की आवाज में आसक्त होकर शिकारी के शिकंजे में आ जाता है।

साधु-संत व महापुरुषों की वाणी सुनना कान का सदुपयोग है।इससे मन में निर्मल विचार आते हैं और आत्मशुद्धि की राह दिखती है।

श्रवण के साथ मनन भी जरूरी है।

श्रवण के बाद चिंतन-मनन हो और आचरण का रस बनकर जीवन के कण-कण में पहुंचे,तभी जीवन सार्थक कहलाता है।

सत्य श्रवण जीवन का दर्पण है,जिसमें अपनी आत्मा का प्रतिबिंब पड़ता है।

शरीर में आँख का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है।

हमारी आँखें दो चमकते हुए हीरों की तरह है।

आँख की ज्योति के बिना मनुष्य पराधीन बन जाता है,उसका संपूर्ण जीवन ही अंधकारमय हो जाता है।

सैंकड़ों मील दूर तक देखने वाली दूरबीन भी आँख के अभाव में काम नहीं देती।

आँख एक बहुमूल्य साधन है।

आँख है,तो विश्वदर्शन है,वरना सर्वत्र अंधकार ही अंधकार है।

यदि कोई अपनी तिजोरी में गोबर के कण्डे भरे,तो लोग उसे कभी समझदार नहीं कहेंगे।

इसी तरह यदि कोई आँख रूपी तिजोरी में पाप रूपी कण्डे भरने का कार्य करता है,तो वह मूर्ख ही कहलाएगा।

हमें परमात्मा से कहना है

कि हे परमात्मा!

यदि तू मुझ पर मेहरबान है,तो ऐसी कृपा बरसाना कि मेरी आँखों में कभी भी विकार जन्म न ले सकें।

यदि तू ऐसा नहीं कर सकता,तो मुझे अंधा रहने दे।

एक बार अंधा हो जाना अच्छा है,पर आँखों में अर्थ या काम का विकार आ जाना अच्छा नहीं।

अंधे आदमी के लिए तो एक भव ही दुःख का कारण बनता है,परंतु आँखों का विकार तो अनेक भवों में दुःख को उत्पन्न करता है।

अधिक रागोत्पादक दृश्य देखने या टी.वी.,सिनेमा आदि देखने से भी आँखें विकारी बन जाती है।

किसी को बुरी निगाह से देखना या देखकर आँखों में वासना के भाव लाना-यह आँख का दुरुपयोग है।

रूप के साथ आँख का घनिष्ठ संबंध है।रूप में आसक्त होकर 'पतंगा' अपने प्राण गँवा बैठता है।

रूप का राग आँख को संकुचित बना देता है,विकारी बना देता है।

जिसे देखने से आँखों में विकार पैदा हो,उसे नहीं देखना,बस यही आँखों का सही सदुपयोग है।

मरने के बाद आँखों का दान कर देना भी पुण्य कार्य माना गया है।

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