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पहले स्वयं की आत्मा में आत्म शांति को प्राप्त करें तभी दूसरों को शांति प्रदान कर सकते हैं - वैराग्य सागर जी महाराज ने दिगम्बर जैन समाज मंदिर प्रवचन धर्म सभा में कहा.

Neemuch headlines September 24, 2024, 4:09 pm Technology

नीमच । पहले स्वयं की आत्मा में शांति प्राप्त करते हैं तभी दूसरों को शांति प्रदान कर सकते हैं। पहले स्वयं के मन को शांत करें तभी देश में शांति के लिए प्रार्थना कर सकते हैं। स्वावलंबी जीवन जीना चाहिए। यदि हम परावलंबी जीवन जिएंगे तो शांति नहीं मिलेगी।

यह बात वैराग्य सागर जी महाराज साहब ने कही। वे पार्श्वनाथ दिगंबर जैन समाज नीमच द्वारा दिगम्बर जैन मंदिर सभागार में परम चक्रवर्ती 108 शांति सागर जी महामुनि राज केज्य पदारोहण शताब्दी वर्ष एवं उपलक्ष्य लक्ष्य में आयोजित धर्म सभा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि व्यक्ति यदि दृढ़ संकल्प के साथ जीवन जीता है तो प्रतिकूलता में भी धर्म कर्म कर लेता है लेकिन वह कभी अनुकूलता में भी नहीं कर पाता है। शांति के लिए कहीं भागना नहीं चाहिए वह तो हमारे भीतर ही होती है। यदि हम दूसरों के जैसा बनने की कोशिश करेंगे तो अपनी शांति भी चली जाएगी। आत्मा का ध्यान करेंगे तो सुख की प्राप्ति हो सकती है। दूसरों के बारे में विचार करेंगे तो दुःख ही मिलेगा सुख कभी नहीं मिल सकता है।

जिसके पास धन है वह अच्छा आहार ग्रहण नहीं कर सकता है। वह रोगी है गरीब के पास धन नहीं है तो वह अच्छा आहार ग्रहण नहीं कर सकता है। हम अपने शरीर की कम दूसरों की ज्यादा चिंता करते हैं। चिंतन का विषय है। लोगों की आकांक्षा करता है वह सदैव दुखी रहता है। भोगों से पाप बढ़ता है पुण्य नहीं, भोग में व्यक्ति सुखी नहीं होता है उल्टा दुःखी होता है। पंचम काल में पग पग पर पाप कर्म ही मिलता है धर्म नहीं चिंता का विषय है। दिगंबर जैन समाज व चातुर्मास समिति अध्यक्ष विजय विनायका जैन ब्रोकर्स, मीडिया प्रभारी अमन विनायका ने बताया कि आगम पर्व के उपलक्ष्य में एकाग्रता, संस्कार, विधि तप उपवास की विधि और सावधानियां सहित विभिन्न धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर मार्गदर्शन प्रदान किया। मुनि सुप्रभ सागर जी मसा ने कहा कि मनुष्य जीवन में समर्पण का सच्चा भाव रखें तो भेद विज्ञान को भी सरलता से सीख सकता है। ध्यान और एकाग्रता महान होती है। एकात्मक भाव में एकाग्रता रखे तो उपयोग परिवर्तन करें कर ले तो शारीरिक दर्द का अनुभव भी नहीं होता है। गणेश प्रसाद बंडी एक महान व्यक्ति थे उन्होंने संस्कृत के विद्यालय पूरे देश में खुलवाए।

उन्होंने पहला संस्कृत विद्यालय बनारस में खुलवाया और स्वयं भी उसी में विद्वानों से प्रथम विद्यार्थी बनकर अध्ययन प्राप्त किया था। ममतत्व भाव के कारण हम अपने अंतरात्मा के आत्म तत्व को पहचान नहीं पाते हैं। भेद विज्ञान को जीवन में स्वीकार करें तभी आत्म तत्व को पहचान सकते हैं। शरीर धर्म साधना के लिए अनिवार्य है। धर्म साधना के लिए शरीर की सुरक्षा करना चाहिए। हम 24 घंटे में से एक घंटा धर्म आध्यात्मिक के लिए उपयोग करते हैं। शेष 23 घंटे शरीर की सुरक्षा में लगा देते हैं चिंतन का विषय है। धर्म के लिए शरीर का त्याग बिरले ही लोग करते हैं। धर्म परायण के लिए भी नियम है। धर्म परीक्षा की घड़ी के लिए ही नियम होते हैं। जो पर को जानता है वह स्वयं को नहीं जानता है। आत्मा को जिसने जान लिया और दूसरों को भी जान लेता है।

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