नीमच । संसार में प्राणियों की चार गति मानी गई है। नरक गति त्रियंच गति, देव गति व मनुष्य गति अगले जन्म में हमें कैसी गति मिलेगी यह हमारे कर्म पर निर्भर करता है। यदि हम पाप कर्म करेंगे तो नरक गति व त्रियंच गति मिलना तय है।
लेकिन यदि हम अच्छे पुण्य कर्म करते हैं तो देवगती मिल सकती है। हमें यह तय करना है कि हम कौन सी गति में जाना है।। यह बात वैराग्य सागर जी महाराज साहब ने कही। वे पार्श्वनाथ दिगंबर जैन समाज नीमच द्वारा दिगम्बर जैन मंदिर में आयोजित धर्म सभा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि बैर की भावना के कारण हमारे कई भव बिगड़ सकते हैं। बैर भावना के कारण ही कमठ को नरक गति मिली थी। जीवन में जो भी बैर भाव रखते हैं उनकी गति बिगड़ जाती है। मुनी श्री ने कहा कि नरक गति में जाने से बचना है तो सर्वप्रथम पाप कर्म बंद करना होगा । यदि पाप करना बंद कर देंगे तो हमारी अगली गति सुधर जाएगी। और अगला जन्म स्वतः ही सुधर जाएगा। मुनियों को केवल ज्ञान होने के बाद तीनों लोकों की बातों का ज्ञान एक साथ हो जाता है। पृथ्वी पर मैत्री भाव हो जाते हैं। पृथ्वी पर शीतल मंद पवन चलती ह फागुन की मस्त हवा चलती है। पृथ्वी रत्न में दिखाई देती है। आकाश निर्मल हो जाता है। आत्मा तपस्या के धन की खान होती है। धर्म प्रभावना करने वाले आचार्य की वंदना करनी चाहिए, 12 प्रकार के तप का दान करना चाहिए। अपराध नहीं किया हो वहीं व्यक्ति आचार्य के पद की ओर जाता है।
व्यक्ति के सौंदर्य को देखकर नहीं उसके सुसंस्कार के गुणों के कारण ही उसे ऊंचा पद मिलता है। 12 वर्ष गुरु की सेवा करने के बाद आचार्य पद मिलता है। दिगंबर जैन चातुर्मास समिति के सचिव अजय कासलीवाल, मीडिया प्रभारी अमन विनायका ने बताया कि धार्मिक पर्व के उपलक्ष्य में विभिन्न आयोजन आयोजित किए जाएंगे। चातुर्मास के पावन अवसर पर आयोजित धर्म सभा में उपस्थित समाज जनों को संबोधित करते हुए मुनि सुप्रभ सागर जी मसा ने कहा कि संसार में मनुष्य ने धर्म को औड रखा है। जब भी संकट आता है तो सबसे पहले धर्म को अलग कर देता है। वास्तविक सच्चाई यह है कि जब व्यक्ति धर्म को जीवन में आत्मसात कर लेता है तभी धर्म उसकी रक्षा करता है। मंदिर धर्म करने का स्थान नहीं है आत्मा का ध्यान धर्म का ज्ञान मंदिर में आकर सीखना चाहिए बाहर जाकर धर्म का पालन करना चाहिए। इंजीनियर महाविद्यालय में शिक्षा का अध्ययन कर प्रयोग सीखता है बाहर जाकर उसका प्रयोग कर लोगों को लाभान्वित करता है इसी प्रकार हमें धर्म मंदिर में जाकर सीखना है और बाहर जाकर लोगों को पालन कर लोगों का कल्याण के लिए उसका उपयोग करना चाहिए तभी धर्म सीखना सार्थक होता है।
अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए । झूठ नहीं बोलना चाहिए। चोरी नहीं करना चाहिए । परिग्रह नहीं करना चाहिए। प्रतिमा का अभिषेक होता है तीर्थंकर परमात्मा का नहीं। विद्वान व्यावसायिक प्रयोग के लिए अनैतिक बातें बात कर दुनिया को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हैं। धर्म की जिनवाणी से आजीविका चलाना पाप कर्म की श्रेणी में आता है। जीव जीव के तत्व को गहराई से जानना पहचाना है तो प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिए। यदि आपका मार्गदर्शक गाइड सच्चा होगा तो सही मार्ग मिलेगा नहीं तो संसार भूलभुलैया है। सही मार्गदर्शन के अभाव में व्यक्ति भटकता रहेगा। परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती 108 शांति सागर जी महामुनि राज के पदारोहण के शताब्दी वर्ष मे परम पूज्य मुनि 108 श्री वैराग्य सागर जी महाराज एवं परम पूज्य मुनि 108 श्री सुप्रभ सागर जी महाराज जी का पावन सानिध्य मिला।