नीमच। धर्म कर्म का पुण्य करने से ही व्यक्ति को सुख शांति मिलती है। संसार का व्यक्ति पूरी दुनिया की जानकारी प्राप्त करने के लिए चिंतन करता है। जिससे कि कोई परिणाम निकलने वाला नहीं है। लेकिन जो आत्मा का कल्याण करने वाला मोक्ष मार्ग हैं।
उस धर्म के लिए व्यक्ति के पास समय नहीं है चिंतन का विषय है। धन कमाने के लिए तो व्यक्ति दुःख सहन कर लेता है लेकिन पुण्य कर्म के धर्म पुरुषार्थ के लिए व्यक्ति कष्ट सहन नहीं कर सकता है। यह बात मुनि वैराग्य सागर जी महाराज ने कही। वे श्री सकल दिगंबर जैन समाज नीमच शांति वर्धन पावन वर्षा योग समिति नीमच के संयुक्त तत्वाधान में श्री शांति सागर मंडपम दिगंबर जैन मंदिर नीमच में आयोजित धर्म सभा में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि किसान सर्दी गर्मी बरसात में अपने खेतों की सिंचाई करता है और फसल को बड़ी करता है वहां उसका आर्थिक स्वार्थ पूरा होता है लेकिन अपनी आत्म कल्याण के लिए व्यक्ति थोड़ा सा भी कष्ट सहन नहीं करता है चिंतन का विषय है। मनुष्य जीवन में आकांक्षाएं लंबी है पर पदार्थ की चिंता नहीं करना चाहिए। व्यक्ति मोबाइल के माध्यम से बाहरी पदार्थ में ज्यादा दिमाग लगाता है जबकि ऐसा करना नहीं चाहिए। जानकारी प्राप्त करने के बाद भी हमें अंत में मिलेगा कुछ नहीं लेकिन यदि हम भक्ति तपस्या और धर्म कर्म का पुण्य कर्म करते हैं तो हमारी आत्मा का कल्याण हो सकता है।
दिगंबर जैन समाज के अध्यक्ष विजय जैन विनायका जैन ब्रोकर्स, मीडिया प्रभारी अमन जैन विनायका ने बताया कि आचार्य वंदना आरती के साथ हुई। मुनि सुप्रभ सागर जी मसा ने कहा कि जीवन में यदि आत्म कल्याण करना है तो प्रतिदिन संयम नियम का पालन करना चाहिए। प्राचीन काल में अंधेरा होने के कारण व्यक्ति को जल्दी-जल्दी धर्म क्रिया शाम होने से पहले पहले करना पड़ती थी। आयुर्वेद के अनुसार व्यक्ति को पेट या पीट के बल की नहीं सोना चाहिए व्यक्ति की करवट बदलकर दाएं और बाएं करवट ही सोना चाहिए। धर्म शास्त्रों के अनुसार तो ऋषि मुनि को एक समय चार अंगुल की दूरी पर दोनों पैरों को रखकर खड़े होकर ही आहार ग्रहण करने का प्रावधान है। काल में ऋषि मुनि नदी किनारे ही तपस्या उपवास करते थे चाहे सर्दी हो गर्मी हो या बारिश। इतनी परेशानी और कष्ट के बावजूद भी है। कभी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होते थे। और वे अपने पाप कर्मों की निर्जरा करने में सफल हो जाते थे। कठोर व्यवहार करने वाले के सामने भी क्रोध का विचार नहीं लाना चाहिए। ज्ञान होने पर कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए और ज्ञान होने पर सामने वाले का तिरस्कार भी नहीं करना चाहिए तभी हमारे आत्मा कल्याण का मार्ग मिल सकता है।
आत्मा और कर्म भाव को अलग ही रखना चाहिए। कर्म आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा के द्वारा, अपने आप आत्मा को ग्रहण करते हैं जो कुछ है आत्मा ही है, सब कुछ आत्मा ही है, आत्मा और शरीर में भेद नहीं होना चाहिए, मेरा आत्मा जान प्रकट करता है गुण सामने रहता है स्वयं आत्मा ही गुणी होती है।